पुणे के कोलवड़े गांव की दो महिलाएं मुंबई जाने वाली रेलगाड़ी, जो भाप से चलती है, के सफ़र और महानगर की मुश्किल ज़िंदगी के बारे में अपने गीतों में बताती हैं
रेल के इंजन की गर्दन पीतल
बोरीबंदर, भायखला से आती चल
इस ओवी में 72 वर्षीया राधा सकपाल “पीतल की गर्दन” वाली एक रेल के बारे में गाती हैं. उनका आशय भाप से चलने वाले इंजन की धुआं उगलती चिमनी से है. गाड़ी की सुंदरता और ताक़त को बढ़ाने वाली चिमनी से एक लय में शोर उठता है - भक्का-भक्क, भक्का-भक्क.
महाराष्ट्र के पुणे ज़िले के कोलवड़े गांव की राधा सकपाल और राधा उभे ने सभी 13 ओवी को अपनी आवाज़ दी है. चक्की पर काम करती हुई ये महिलाएं गीत के माध्यम से भाप से चलने वाली रेलगाड़ी, उसके मुसाफ़िरों और मुंबई शहर तक उनके सफ़र के बारे में बताती हैं. इस ओवी में यह वर्णन किया गया है कि किसी बड़े शहर में नौकरी और आमदनी के ज़रिए की तलाश में आए लोगों की ज़िंदगियां किन मुश्किलों से भरी होती हैं.
गीत के एक बंद में एक औरत अपने पति से गाड़ी में सवार होने से पहले सोडचिट्ठी अर्थात तलाक़ मांगती है. क्या यह मांग पति-पत्नी के बीच अलगाव का नतीजा है, क्योंकि दोनों में से एक काम की तलाश में मुंबई चला जाता है? या यह किसी बड़े शहर में लगातार और कड़ी मेहनत के कारण होने वाले तनाव की तरफ़ एक इशारा है? या अब वह औरत अपने धोखेबाज़ पति के साथ रहना नहीं चाहती है?
ओवी में रेलगाड़ी के बढ़ने के साथ ही एक दूसरी औरत अपने किसी सहयात्री से चिंतित स्वर में पूछती है, “तुमको पता है, मेरा भाई किस बोगी में है?” और फिर पूछती है, “बहन, मेरा बेटा किस बोगी में है?” बारी-बारी से ओवी यह बताती है कि वह औरत अपने भाई या बेटे या दोनों के ही साथ यात्रा कर रही है. ओवी के माध्यम से कही गई यह कथा यह रेखांकित करने का प्रयास करती है कि रेल की गहमागहमी और भीड़भाड़ में वह औरत अपने पारिवारिक सहयात्रियों से बिछड़ गई है.
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'यही वह रेलगाड़ी है जो भक्का-भक्क धुआं उगलती है!'
अगले कुछ बंद अद्भुत काल्पनिकता से भरे हुए हैं. इंजन की चिमनी से निकलते धुंए का रंग सीटी की तेज़ आवाज़ के बीच कभी काला और कभी नीला होता रहता है. इन पंक्तियों में शोर और रंग का यह मेल दरअसल उस औरत के मन की घबराहट को अभिव्यक्त करता है. परिजनों से बिछड़ने और इस यात्रा में अपने साथियों से अलग होने का दुःख उसकी इस बेचैनी को और बढ़ाने का काम कर रहे हैं.
चूंकि मराठी भाषा में हरेक वस्तु का लिंग-विभाजन होता है, उस दृष्टि से रेल स्त्रीलिंग है. ओवी में यात्रा की अफ़रा-तफ़री और उस औरत की अपने साथियों की घबराहट भरी तलाश -- दोनों एक-दूसरे के सामानांतर चलती हैं.
वह औरत बोरीबंदर (आज का छत्रपति शिवाजी टर्मिनस) को रेलगाड़ी का मायका और ससुराल दोनों बताती है. मुसाफ़िरों के कंपार्टमेंट से उतरने तक रेलगाड़ी भी अपने इस आख़िरी पड़ाव पर थोड़ी देर के लिए सुस्ता लेती है.
जल्दी ही उसमें नए यात्रियों की नई खेप सवार हो जाती है. गाड़ी को उन सबको अपने-अपने गंतव्यों तक ले जाना होगा - एकदम उस औरत की ज़िम्मेदारियों की तरह जिसे सुबह से लेकर देर रात तक कोई शिकायत और बहाना किए बिना अपनी गृहस्थी के कामकाज निबटाने होते हैं.
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राधा सकपाल नीली बैंगनी साड़ी में. फूलों की छापेदार साड़ी में उनकी सास हैं. उनके पीछे की दीवार पर जो दो तस्वीरें टंगी हैं वे राधाबाई के दिवंगत पति और उनकी दूसरी पत्नी की हैं
गीत के एक दूसरे बंद में गायिका बताती है कि एक रेलगाड़ी को बनाने में बहुत सारा लोहा गलाने की ज़रूरत पड़ी होगी. यह बात किसी ऐसी औरत के लिए कितनी हैरत की होगी “जिसकी कोई बेटी नहीं होगी.” वह शायद यह कहना चाहती है कि एक बेटी की परवरिश का मतलब पितृसत्तात्मकता से लगातार समझौते करना होता है. गायिका गाती हुई कहती है कि एक बेटी को पालकर उसे बड़ी करना और उसकी शादी किसी अच्छे और व्यवस्थित परिवार में कर देना उसके मां-बाप के लिए एक बड़ी ज़िम्मेदारी है. इस बात को केवल वही लोग अच्छी तरह से समझ सकते हैं जिसके घर में कोई बेटी है.
ओवी किसी कथा की तरह आगे बढ़ती हुई उस औरत के जीवन तक जा पहुंचती है जो विस्थापित होकर मुंबई चली गई है. अंतिम पांच बंद उसके उत्साह और घबराहट - दोनों को अभिव्यक्त करते हैं. “मुंबई जाने के लिए औरत को अच्छी तरह से सजा-संवार दिया गया था,” ओवी में यह वर्णन मिलता है. रेल जब खंडाला घाट के पहाड़ी इलाक़ों से गुज़रती है, तब उसे अपने माता-पिता की याद आती है. रेल का पेचीदा रास्ता देखकर उसके दिमाग़ में भविष्य के मुश्किल दिनों की कल्पनाएं तैरने लगती हैं जो उसे अपने मां-बाप के बिना गुज़ारने हैं.
जब मुंबई में उस औरत को खाने में अपनी पसंद की मछली नहीं मिलती है, तब उसे अपने गांव का जीवन बहुत याद आता है, जहां वह चिला (जंगली पालक) खाया करती थी. औरत याद करती है कि जब कभी वह अपने गांव जाती थी, वह वहां के खेतों में भटकती फिरती थी - मानो वे खेत भी उसका इंतज़ार ही कर रहे हों.
ओवी में इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि मुंबई में उस औरत के जीवन में कैसे-कैसे बदलाव आ जाते हैं. उसने खाने-पीने की चीज़ों की एक छोटी से टपरी खोल ली है और अपना अधिकतर वक़्त अपने ग्राहकों के लिए खाना बनाने और उन्हें खिलाने में गुज़रता है. उनके ग्राहकों में अधिकतर प्रवासी कामगार हैं. जहां तक संभव है, वह मुंबई के तौर-तरीक़ों को अपनाने की पूरी कोशिश करती है. वह अपने बालों में तेल लगाती है और उन्हें कंघी से संवारती है. अब वह गांव की तरह यहां फ़र्श पर नहीं बैठ जाती. जल्दी ही वह अपने काम में इतनी रम जाती है कि उसके पास अपने बाल में तेल लगाने और खाना खाने तक की फुर्सत नहीं बचती है. अपनी टपरी में कामों में उलझी वह अपने पति का भी ख़याल नहीं रख पाती है - “वह अपने पति से ज्यादा अपने ग्राहकों की देखभाल करने लगती है,” चक्की पर बैठी औरतें गाकर बताती हैं. गीत का अंतिम बंद वैवाहिक असहमतियों और तलाक़ की चिट्ठी की तरफ़ संकेत करते हैं, जिसका उल्लेख ओवी की शुरुआत में ही मिलता है.
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भारत में ट्रेनों का संक्षिप्त इतिहास
रेल के गीतों के बहाने जीवन-यात्रा का वृतांत.
बाई आगीनगाडीचा, हिचा पितळंचा गळा
पितळंचा गळा, बोरीबंदर बाई, भाईखळा
बाई आगीनगाडीला हिची पितळीची पट्टी
पितळंची बाई पट्टी, नार मागती बाई सोडचिठ्ठी
बाई आगीनगाडीचा धूर, निघतो बाई भकभका
धूर निघतो भकभका, कंच्या डब्यात बाई माझा सखा
अशी आगीनगाडी हिचं बोरीबंदर बाई माहेयरु
बाई आता नं माझं बाळ, तिकीट काढून तयायरु
बाई आगीनगाडीचं, बोरीबंदर बाई सासयरु
बाई आता ना माझं बाळ, तिकीट काढून हुशायरु
आगीनगाडी बाईला बहु लोखंड बाई आटयिलं
बाई जिला नाही लेक, तिला नवल बाई वाटयिलं
बाई आगीनगाडी कशी करती बाई आउबाउ
आता माझं बाळ, कंच्या डब्यात बाई माझा भाऊ
बाई आगीनगाडीचा धूर निघतो बाई काळा निळा
आत्ता ना बाई माझं बाळ, कंच्या डब्यात माझं बाळ
बाई ममईला जाया नार मोठी नटयली
खंडाळ्याच्या बाई घाटामधी बाबाबये आठवली
नार ममईला गेली नार, खाईना बाई म्हावयिरं
बाई चिलाच्या भाजीयिला, नार हिंडती बाई वावयिरं
नार ममईला गेली नार करिती बाई तेल-फणी
बाई नवऱ्यापरास खानावळी ना बाई तिचा धनी
नार ममईला गेली नार बसंना बाई भोईला
बाई खोबऱ्याचं तेल, तिच्या मिळंना बाई डोईला
नार ममईला गेली नार खाईना बाई चपायती
असं नवऱ्यापरास खाणावळ्याला बाई जपयती
रेल के इंजन की गर्दन पीतल
बोरीबंदर, भायखला से आती चल
रेल की दोनों तरफ़ पीतल की पट्टियां लगी
अपने पति से तलाक़ औरत मांगी
रेल चल रही भक्का भक्क धुआं उड़ाती
मेरा साथ सफ़र पर चला, किधर है मेरा भाई
बोरीबंदर तो रेल का मायका है
टिकट लिया ख़रीद, सफ़र में साथ मेरे बेटा है
बोरीबंदर तो रेल की ससुराल है
टिकट हाथ में लिए, सफ़र में साथ मेरे बेटा है
रेल बनाने में कि गल गए कितने कितने लोहे
जिसकी न बिटिया हो, उस औरत को हैरत होए
देख बहन, रेल के गरजने की आवाज़ सुनो
पता नहीं मेरा बेटा है किस बोगी में किधर को?
एक औरत तो सज-धजकर मुंबई को जाती है
खंडाला घाट से गुज़रे जब मां-बाप की याद आती है
मुंबई जाने के बाद वह मछली नहीं खाती है
जंगली पालक याद करके वह मैदानों में ढूंढती है
मुंबई में रहती औरत बालों में तेल लगाती है, और
कंघी से संवारती है
अपने पति से ज़्यादा वह ग्राहकों का ख़याल रखती
है
मुंबई जाने के बाद फ़र्श पर नहीं बैठती
अब तो बाल में नारियल तेल चुपड़ने का भी वक़्त नहीं
मुंबई जाने के बाद औरत को रोटी खाने का वक़्त नहीं
अपनी टपरी में ग्राहक देखती, पति अब उसको याद
नहीं
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प्रस्तोता/गायक : राधाबाई सकपाल, राधा उभे.
गांव : कोलवड़े
बस्ती : खड़कवाड़ी
तालुका : मुलशी
ज़िला : पुणे
जाति : मराठा
दिनांक : ये गीत और कुछ जानकारियां 6 जनवरी, 1996 को रिकॉर्ड की गई थी. गायिका की तस्वीर अप्रैल 30, 2017 को ली गई थी, उस समय हम राधा उभे को नहीं ढूंढ सके थे.
पोस्टर: ऊर्जा
मूल ‘ग्राइंडमिल सॉन्ग्स प्रोजेक्ट’ के बारे में पढ़ें , जिसे हेमा राइरकर और गी पॉइटवां ने शुरू किया था.
अनुवाद: प्रभात मिलिंद