फरवरी के एगो घाम वाला दिन बा. जयपुर के राजस्थान पोलो क्लब में सांझ के 4 बजत बा.
दुनो टीम के चार गो खिलाड़ी लोग पोजीशन ले लेले बा.
टीम पीडीकेएफ (प्रिंसेस दिया कुमारी फाउंडेशन) आउर टीम पोलोफैक्टरी इंटरनेशनल के महिला खिलाड़ी लोग आमने-सामने बा. भारत में अब तक के पहिल अंतरराष्ट्रीय महिला पोलो मुकाबला होखे वाला बा.
खिलाड़ी लोग हाथ में आपन लकड़ी के मैलेट (छड़ी) लेले, तइयार बा. अशोक शर्मा के एह सीजन के ई पहिल मैच रही. बाकिर उनकरा खातिर ई खेल नया नइखे.
अशोक शर्मा पोलो मैलेट बनावेलन. ऊ तीसर पीढ़ी के कारीगर बाड़ें, उनकरा एकर 55 बरिस के तजुर्बा बा. मैलेट, बेंत से बनल एगो छड़ी होखेला. पोलो खिलाड़ी के किट के ई एगो जरूरी हिस्सा बा. आपन परिवार के छड़ी बनावे के सौ साल पुरान परंपरा के बारे में ऊ गर्व से बतावे लगलें, “हम त मैलेट बनावे के कला संगे पैदा भइल रहनी.” बता दीहीं, कि पोलो घोड़ा के पीठ पर बइठ के खेलल जाला. ई घुड़सवारी से जुड़ल सबले पुरान खेल में से बा.


अशोक शर्मा (बावां) जयपुर पोलो हाउस के बाहिर ठाड़ बाड़ें. इहंवा ऊ आपन परिवार- घरवाली मीना आउर भतीजा जीतेंद्र जांगिड़ (दहिना) संगे अलग अलग तरह के पोलो मैलेट बनावे के काम करेलें
जयपुर पोलो हाउस उनकरे बा. शहर के सबसे पुरान आउर प्रतिष्ठित कारखाना. ई उनकर घर भी बा. इहंवा ऊ आपन घरवाली मीना आउर भतीजा जीतेंद्र जांगिड़ संगे मिल के तरह-तरह के पोलो मैलेट बनावेलें. जीतेंद्र, 37 बरिस, के ऊ दुलार से ‘जीतू’ कहेलें. ऊ लोग जांगिड़ समुदाय से आवेला, जेकरा राजस्थान में अन्य पिछड़ा वर्ग मानल जाला.
दुनो टीम मुकाबला खातिर आमने-सामने ठाड़ बा. अंपायर टीम के बीच बॉल घुमावत बाड़ें. एने मैच सुरु हो रहल बा, ओने 72 बरिस के अशोक भाई के पुरान बात इयाद आवे लागत बा. “पहिले हम साइकिल चलाके मैदान आवत रहीं. फेरु हम स्कूटर खरीद लेनी.” बाकिर 2018 में ई सिलसिला खत्म हो गइल. दिमाग में हल्का स्ट्रोक (दिमागी आघात) लागे के बाद उनकर रोड पर घुमनाई बंद हो गइल.
ओहि घरिया दुगो पुरुष खिलाड़ी लोग उनकरा लगे आइल आउर नमस्ते “पॉली जी” कहलक. जयपुर में पोलो के दुनिया में लोग अशोक भाई के इहे नाम से पुकारेला. ई नाम उनकर नानी रखले रहस. ऊ बतइलें, “हम इहंवा जादे आवे के चाहत बानी. एकरा से जादे से जादे खिलाड़ी लोग हमरा देखी आउर जान जाई कि हम अबहियो एह काम में सक्रिय बानी. फेरु ऊ लोग हमरे लगे आपन छड़ी, मरम्मत खातिर भेजी.”
करीब दू दशक पहिले तक जब कोई अशोक भाई के कारखाना आवे, त देख सकत रहे, तइयार मैलेट से देवाल भरल रहत रहे. सभे छड़ी मुंह के तरफ से छत से बंधल लटकत रहत रहे. ऊ बतावत बाड़ें कि कारखाना में एतना मैलेट बनत रहे कि इहंवा के धूसर रंग के देवाल पर एक इंच जगह ना बचत रहे. उनकरा हिसाब से, “नामी-गिरामी खिलाड़ी लोग आवे, आपन मनपसंद छड़ी चुने, हमरा संगे बइठे, चाय पिये आउर चल जाए.”
खेला सुरु हो गइल रहे. हमनी सभ के सीट राजस्थान पोलो क्लब के पुरान सचिव वेद आहूजा के बगल में रहे. आहूजी तनी मुस्कइलन आउर कहलन, “सभे कोई आपन मैलेट सिरिफ पॉली से ही बनवावत रहे. पॉली क्लब खातिर बांस के जड़ से तइयार गेंद भी लेके आवत रहस.”


तस्वीर 1990 के दशक के बा. एह में अशोक (बीच में) अंतरराष्ट्रीय पोलो खिलाड़ी लोग संगे ठाड़ बाड़ें. ऊ लोग नया छड़ी खरीदे, चाहे पुरान छड़ी के मरम्मत आउर फिटिंग करावे आवत रहे. दहिना: सीसा के खाली शोकेस, एह में कबो मैलेट भरल रहत रहे
अशोक भाई बतावत बाड़ें, पोलो बहुत महंग खेल बा. एकरा खेले के खरचा खूब रईस, चाहे फौज के लोग ही उठा सकत बा. साल 2023 के आंकड़ा देखल जाव त, 1892 में बनल इंडियन पोलो एसोसिएशन (आईपीए) में खाली 368 खिलाड़ी के ही नाम दरज बा. पोलो के एगो मैच में चार से छव चक्कर होखेला. खिलाड़ी के हर एक चक्कर के बाद अलग घोड़ा पर सवार होखे के पड़ेला. एहि से उनकरा मुताबिक, “मैच खेले खातिर खिलाड़ी लगे कमो ना, त 5 से 6 घोड़ा होखे के चाहीं.”
पुरान जमाना में शाही घराना, खासकर के राजस्थान के राजा-रजवाड़ा लोग एह खेल के शौकीन रहे. अशोक भाई बातवत बाड़ें, “हमार ताऊ केशू राम, 1920 के दशक में जयपुर आउर जोधपुर के नवाब लोग खातिर पोलो मैलेट बनावत रहस.”
पछिला तीन दशक से पोलो के दुनिया में खेल, उत्पादन आउर बाजार तीनों पर अर्जेंटीना के राज बा. अशोक कहलें, “ओह लोग के पोलो के घोड़ा हिंदोस्तान में गरदा उड़इले रहेला. एहि तरह से ओह लोग के पोलो मैलेट आउर फाइबर ग्लास वाला गेंद के भी इहंवा बहुते पसंद कइल जाला. इहंवा तक कि खेल सीखे खातिर खिलाड़ी लोग अर्जेंटीना भी जाएला.”
ऊ कहलें, “अर्जेंटीना में बनल छड़ी के कवनो मुकाबला नइखे. एकरे कारण हमार काम ठप्प पड़ गइल. बाकिर शुकर बा कि हम 30-40 बरिस पहिलहीं साइकिल पर बइठके पोलो खेले वाला छड़ी बनावे के सुरु कर देले रहीं. एहि से हमनी के जान बचल बा.”
साइकिल पोलो कवनो तरह के डिजाइन, चाहे आकार के एगो सामान्य साइकिल पर खेलल जाएला. घोड़ा के पीठ पर बइठ के खेले जाए वाला पोलो के उलट, अशोक भाई के हिसाब से, “ई खेल आम जनता खातिर बा.” उनकर ढाई लाख के सलाना आमदनी मोटा-मोटी साइकिल पोलो के मैलेट बनावे के काम से आवेला.


अशोक भाई बतवलें कि जयपुर के बाजार के लकड़ी से हमनी सालन मैलेट बनइनीं बाकिर नाकाम रहनी. मजबूरन आज हमनी मैलेट के सिरा खातिर आयात होखे वाला स्टीम बीच लकड़ी आउर मेपल के पेड़ के लकड़ी पर निर्भर बानीं. दहिना: जीतू छड़ी से मैलेट बनावे के काम सुरु करत बाड़ें. ऊ घोड़ा पर खेलल जाए वाला पोलो खातिर छड़ी के 50 से 53 इंच के बीच निसान लगावत बाड़ें. साइकिल पोलो खातिर अइसने लकड़ी के छड़ी पर 32 से 36 इंच के बीच कवनो बिंदु पर निसान लगावल जाई
केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान आउर उत्तर प्रदेश के फौजी टीम आउर आम लोग से अशोक भाई के 100 से जादे साइकिल पोलो मैलेट के सलाना ऑर्डर मिल जाएला. एक मैलेट पर उनकरा 100 रुपइया ही काहे मिलेला. एकरा बारे में ऊ समझइलें, “साइकिलो पोलो खिलाड़ी अक्सरहा गरीब होखेला. एहि से हम ओह लोग के छूट दे दिहिले.” उनकरा कैमल पोलो (ऊंटन पर बइठ के खेले जाए वाला) आउर एलीफैंट पोलो (हाथी पर खेले जाए वाला) खातिर भी मैलेट के ऑर्डर मिलेला. बाकिर अइसन आर्डर बहुते कम होखेला. एकरा अलावा, भेंट में देवे खातिर एकदम छोट आकार (मिनिएचर) के छड़ी के भी ऑर्डर मिलेला.
अशोक मैदान में साथे-साथे चलत बतइलें, “आज इहंवा नाम खातिर दर्शक लोग मौजूद बा.”
पाकिस्तान आउर भारत के बीच मैच रहे, त उनकरा इयाद बा कि 40,000 से भी जादे दर्शक आइल रहे. केतना लोग त स्टेडियम के बाहिर पेड़ पर चढ़के मैच के आनंद लेत रहे. अच्छा दिन के याद उनकरा पोलो मैलेट बनावे के परिवार के परंपरा के जारी रखे आउर वक्त के हिसाब से ढले के प्रेरणा देवेला.
*****
“लोगवा कहेला, एह काम में कइसन कारीगरी? ई बस एगो बेंते त हवे.”
ऊ कहलें, “मैलेट बनावे खातिर तरह तरह के कुदरती कच्चा माल के सइहार के, कौशल के साथ तइयार करे के पड़ेला. ना त मैदान पर खेले में मजा ना आई. छड़ी में संतुलन, लचक, ताकत आउर हल्कापन होखे के चाहीं. छड़ी में ऐंठन भी ना होखे के चाहीं.”
बरिसन से खेले में मजा लावे खातिर ऊ आपन कारखाना में पोलो छड़ी के आकार देत आइल बाड़ें. उनकर घर के बाहर ‘जयपुर पोलो हाउस’ के तख्ती टांगल बा.
हमनी एगो कम रोशनी वाला सांकर सीढ़ी से चढ़नी. तीसर मंजिल पर मौजूद उनकर कारखाना में पहुंचनी. ऊ बतावे लगलें कि कइसे ब्रेन स्ट्रोक भइल त उनकरा खातिर काम कइल बहुते कठिन हो गइल रहे. बाकिर ऊ काम करे के ठान लेले रहस. घोड़ा पैलेट के मरम्मत के काम पूरा साल चलेला. बाकिर साइकिल पोलो के बात कइल जाव, त छड़ी बनावे का काम जादे करके सीजन- सितंबर से मार्च, में रहेला.


अशोक भाई के घरवाली मीना, घर संभारेली आउर सात बरिस के पोती नैना (दहिना) के देखभाल करेली. एकरा अलावे ऊ मैलेट के मूंठ के मजबूत बनावे आउर पकड़ के बांधे के काम करेली. एह काम में सबले जादे समय लागेला
अशोक भाई बतइलें, “मैलेट बनावे में जेतना तरह के मुस्किल काम होखेला, जीतू करेलें. ऊ ऊपर बइठेलें, आउर मैडम आ हम बाकी के काम नीचे आपन कमरा में करिले.” ऊ आपन घरवाली मीना के ‘मैडम’ बुलावेलें. मीना लगही बइठल बाड़ी. अशोक के उनकरा लगातार ‘बॉस’ कहे पर ऊ ठिठिया के हंसे लागत बाड़ी. एह बीच ऊ हमनी के बात जादे नइखी सुनत. ऊ कवनो ग्राहक के आपन फोन से मैलेट के सैम्पल फोटो भेजे में लागल बाड़ी.
फोटो भेजला के बाद ऊ रसोई में हमनी खातिर कचौड़ी बनावे चल जात बाड़ी. मीना बतइली, “हम 15 बरिस से पोलो के काम कर रहल बानी.”
अशोक देवाल से एगो पुरान मैलेट उतार के हमनी के ओकर तीन गो जरूरी पुरजा देखावत बाड़ें: बेंत के मूंठ, लकड़ी के सिरा आउर रबर चाहे रेक्सीन से बनल हैंडल. हैंडल संगे कपड़ा के एगो लटकन भी लागल रहेला. हर एक पुरजा के बनावे के जिम्मेदारी, परिवार के अलग-अलग सदस्य के जिम्मे बा.
मैलेट बनावे के काम जीतू से सुरू होखेला. ऊ तीसर मंजिल पर बइठ के कटर के मशीन से बेंत काटत बाड़ें. ई मशीन ऊ अपने बनवले बाड़ें. एह बेंत के घुमावदार बनावे खातिर ऊ रंदा के इस्तेमाल करेलें. एकरा से मूठ में लचक आवेला. खेले घरिया एह में लोच पैदा हो पावेला.
भाई कहत बाड़ें, “हमनी बेंत के पेंदी में कील ना ठोकेनी. काहे कि अगर ई घोड़ा के लाग गइल, त ऊ घायल हो सकेला. जदि घोड़ा लंगड़ा हो गइल, त राउर लाखन रुपइया पानी में चल जाई.”


खेले घरिया बेंत में लोच पैदा करे खातिर, जीतू एकरा के घुमावदार बनावत बाड़ें. ऊ एकर (बावां) आखिर में एगो छोट चीरा लगा देत बाड़ें. फेरु एकरा मैलेट के सिरा (दहिना) के बीच में टिका देत बाड़ें
जीतू के कहनाम बा, “हमार काम सुरु से तकनीक से जुड़ल रहल.” ऊ एकरा से पहिले फर्नीचर बनावत रहस. फिलहाल राजस्थान सरकार के सवाई मान सिंह अस्पताल के ‘जयपुर फुट’ विभाग में काम करेलें. इहंवा उनकरा जइसन कारीगर लोग किफायती बनावटी अंग तइयार करेला.
जीतू मैलेट के सिरा के देखा के बतावे लगलें कि एह में कइसे ड्रिल मशीन से छेद बनावला जाला. एहि छेद के रस्ते बेंत के मूठ के टिकावल जाला. एकरा बाद, ऊ मैलेट मीना के हाथ में पकड़ा देलें.
रसोई सबसे निचला मंजिल (ग्राउंड फ्लोर, भूतल) पर बा. एकरा लगले दू गो बेडरूम बनल बा. मीना काम के बीच एह कमरा सभ में जरूरत के मुताबिक आवाजाही करत रहत बाड़ी. उनकर कोसिस रहेला कि ऊ मैलेट के काम दुपहरिया बखत करस, मतलब दुपहरिया के 12 बजे से सांझ के 5 बजे के बीच. बाकिर तुरंत देवे वाला कवनो ऑर्डर आ जाला, त उनकर काम जादे लंबा खिंच जाएला.
मीना मैलेट बनावे से जुड़ल अइसन काम करेली, जेह में सबसे जादे बखत लागेला. जइसे कि मूठ के मजबूत बनावे आउर पकड़ के बांधे के काम. मूठ के पातर छोर पर फेविकोल में डूबल सूती पट्टी बांधे जइसन बारीक काम भी शामिल बा. ई कइला के बाद, मूठ के सूखे खातिर 24 घंटा तक सपाट जमीन पर छोड़ देवल जाला. एकरा से ई आकार सही पकड़ेला.
फेरु ऊ रबर चाहे रैक्सीन से ग्रिप के बांधेली. गोंद आउर कील के मदद से मोटा हत्था पर रूई के मोट गद्दी लगावेली. ई ग्रिप देखे में साफ आउर मजबूत होखे के चाहीं. ना त ई खिलाड़ी के हथेली से फिसल सकेला.


मीना जी रबर, चाहे रेक्सीन के ग्रिप बांधत बाड़ी. गोंद आउर कील के मदद से मोटा हत्था पर रूई के लटकन लगावत बाड़ी. ग्रिप देके में साफ आउर लटकन मजबूत होखे के चाहीं, ना त खिलाड़ी के हाथ से फिसल सकेला
दुनो मरद-मेहरारू के एगो लइका, 36 बरिस के सत्यम बाड़ें. पहिले ऊहो एह काम में हाथ बंटा देत रहस बाकिर एगो सड़क हादसा के बाद उनकर पांव में तीन गो सर्जरी भइल. अब ऊ जमीन पर ना बइठ सकस. ऊ कबो-कबो रसोई में रात में तरकारी बना देवेलें, चाहे दाल में ढाबा जइसन तड़का लगा देवेलें.
अशोक जी के पतोह राखी पिज्जा हट में नौकरी करेली. उनकरा हफ्ता के सात दिन भोर के नौ से रात के नौ बजे के ड्यूटी रहेला. पिज्जा हट उनकरा घर से पैदल दूरी पर बा. कबो फुरसत होखेला त ऊ घर पर आपन लइकी नैना संगे मेहरारू लोग के कपड़ा, जइसे कि ब्लाउज आ कुरता सिए के काम करेली.
नैना भेंट देवे खातिर बनल एगो बहुत छोट (मिनिएचर) सजावटी पोलो मैलेट संगे खेलत बाड़ी. तनिके देर में उनकरा से एकरा ले लेहल जात बा काहे कि ई बहुते नाजुक होखेला. मिनिएचर में लकड़ी पर बनावटी मोती से बनल गेंद आउर दु गो छड़ी के सेट बा. एकर 600 रुपइया दाम बा. मीना बतइली कि खेल में इस्तेमाल होखे वाला मैलेट के मुकाबले भेंट में देवे वाला मिनिएचर मैलेट बनावे में बहुते मिहनत लागेला.
मैलेट बनावे के बात कइल जाव, त छड़ी के सिरा आउर बेत के मूठ के आपस में जोड़ल बहुते कठिन काम बा. एकरे से मैलेट में संतुलन आवेला. मीना बतइली, “संतुलन के सभे कोई ना साध सकेला.” मैलेट में संतुलन से समझौता ना कइल जा सके. अशोक भाई सहज भाव से कह उठलें, “इहे काम त हम करिला.”
भूइंया पर लाल गद्दी (लमहर कुशन) पर बइठ के ऊ आपन बावां गोड़ फइला के रखले बाड़ें. छड़ी के सिरा में छेद के आस-पास गोंद लगावत बाड़ें. बेंत के मूठ उनकर गोड़ के अंगूठा आउर तर्जनी अंगुरी के बीच फंसल बा. हमनी पूछनी कि बेंत के मूठ के पछिला पांच दशक में ऊ केतने दफे आपन गोड़ के अंगुरी में फंसइले होखिहें, त भइया धीरे से हंस देत बाड़ें, “एकर कवनो गिनती नइखे.”


साल 1985 के एगो फोटो (बावां). अशोक भाई मैलेट के संतुलन ठीक करत बाड़ें. परिवार में ई काम उहे करेलें. ऊ मूठ संगे बेंत के एगो टुकड़ा लगा दे बाड़ें. एकरा से मैलेट के सिरा पर बइठावल जा सकेला. मूठ पर हल्का हाथ से हथौड़ा चलावे के पड़ेला, ताकि मूठ टूट न जाए. मोहम्मद शफी (दहिना) मैलेट के रंग-रोगन के काम करेलें. ऊ एकरा पर कैलीग्राफी भी करेलें
जीतू कहलें, “ई चूड़ी बन जाई, फिक्स हो जाई, फेरु बाहिर ना नकली.” गेंद बेर-बेर मारे के होखेला, एहि से बेंत आउर लकड़ी के जमाके रखल जाला.
महीना में मोटा-मोटी 100 मैलेट तइयार कइल जाला. एकरा बाद मोहम्मद शफी उनकरा वार्निश (रोगन) करेलें. शफी, करीब 40 बरिस से अशोक भाई संगे काम करत बाड़ें. वार्निश करे से एकरा में गजब चमक आ जाएला. एकरा से नमी आउर धूल से भी बचाव होखेला. शफी भाई मैलेट के पेंट करेलें. एकरा बाद अशोक भाई, मीना आउर जीतू मेलेट के हैंडल के नीचे ‘जयपुर पोलो हाउस’ के लेबल चिपकावेलें.
एगो मैलेट बनावे में 1,000 रुपइया के कच्चा माल लाग जाला. अशोक बतावत बाड़ें कि बेचला पर एकर आधा दाम भी ना मिले. ऊ कोसिस करेलें कि एगो मैलेट 1,600 रुपइया में बिकाए. बाकिर हरमेसा सफलता ना मिलेला. ऊ कहलें, “खिलाड़ी लोग ठीक दाम ना देवेला. ऊ लोग खाली 1200 रुपइया देवेला.”
मैलेट से होखे वाला कमाई लगातार घट रहल बा. उनकरा एह बात के अफसोस बा. ऊ बतावत बाड़ें, “बेंत असम आउर रंगून से कोलकाता पहुंचेला.” एकरा में नमी के मात्रा, लचक, मोटाई आउर घनापन के ख्याल रखे के होखेला.
अशोक जी के हिसाब से, “कोलकाता में कारोबारी (सप्लायर) लोग जे बेंत बेचेला, ऊ मोट होखेला. एकरा पुलिस के डंडा, चाहे बुजुर्ग के छड़ी बनावे के काम में जादे लावल जाला. अंदाजन एक हजार बेंत में से खाली सौ ही हमार काम के होखेला.” सप्लायर जेतना बेंत भेजेला, ओह में से देखल जाव त, जादे करके मैलेट बनावे के हिसाब से मोट होखेला. एहि से महामारी के पहिले तक ऊ ठीक बेंच चुने खातिर हर साल खुद कोलकाता जात रहस. “अब त पॉकेट में एक लाख रुपइया होखे, तबे कोलकाता जा सकिले.”


बावां: पोलो के अलग-अलग तरह के खेल में इस्तेमाल होखे वाला मैलेट के आकार भी अलग होखेला. एकरा बनावे में लागे वाला लकड़ी के मात्रा भी अलग होखेला. घोड़ा पर खेलल जाए वाला पोलो में मैलेट के सिरा (सबले दहिना) के लकड़ी के वजन ओकर 9.25 इंच के लंबाई के हिसाब से 200 ग्राम होखे के चाहीं. दहिना: मैलेट बनावे में इस्तेमाल होखे वाला औजार (बावां से दहिना): नोला, जमुरा (प्लायर), चोरसी (छेनी), भसोला (छिल हथौड़ा), कैंची, हथौड़ी, छेद साफ करे वाला तीन गो औजार, दू गो रेती (चपटा आउर गोल हत्था वाला), आउर दू गो आरी
स्थानीय बाजार के लकड़ी के बरिसन इस्तेमाल करे आउर एह में नाकाम भइला पर अशोक जी के दोसरा रस्ता अख्तियार करे के पड़ल. अब उनकरा मजबूरी में आयात होखे वाला स्टीम बीच के आउर मेपल के पेड़ के लकड़ी पर निर्भर होखे के पड़ता.
ऊ बतावत बाड़ें कि ऊ कबो लकड़ी कारोबारी के ई ना बतावस कि ऊ लकड़ी के खरीद के का करेलें. “ऊ लोग दाम बढ़ी दीही, ई कहके कि रउआ त बड़ काम करिले!”
एहि से ऊ ब्यापारी लोग के बतावेलें कि ऊ मेज के पाया बनावेलें. ऊ हंसत कहलें, “केहू पूछेला कि का रउआ बेलन भी बनाइले, हम हंस के हां कह दीहिले.”
उनकर कहनाम बा, “हमरा लगे 15 से 20 लाख रुपइया रहित, त हमरा एह काम में केहू रोक ना सकत रहे.” उनकरा मुताबिक अर्जेंटीना में उगे वाला टिपुआना टिपू पेड़ के टिपा लकड़ी सबले नीमन होखेला. एकरे से अर्जेंटीना के पोलो मैलेट के सिरा बनावल जाला. ऊ बतइलन, “ई लकड़ी बहुते हल्का होखेला, टूटेला ना. एकरा बस छिलल जाला.”
अर्जेंटीनी के मैलेट कमो ना त 10,000 से 12,000 रुपइया में बिकाला. “बड़ खिलाड़ी लोग आपन मैलेट अर्जेंटीना से ही मंगवावेला.”


साल 1930 से ले के 1950 के दशक में जे मैच भइल, अशोक भाई के ताऊ केशू राम (बावां) आउर बाबूजी कल्याण (दहिना) जयपुर टीम संगे इंगलैंड में रहस. इहंवा फोटो में ऊ लोग मैच में इस्तेमाल होखे वाला मैलेट संगे तइयार ठाड़ देखाई देत बा
अबही अशोक जी ऑर्डर मिलला पर घोड़ा पर खेले जाए वाला पोलो मैलेट बनावेलन. ऊ बिदेसी मैलेट के मरम्मत भी करेलें. भारत में सबले जादे पोलो क्लब जयपुर में हवे. एकरा बावजूद, शहर के खेलकूद के सामान वाला दोकान में पोलो मैलेट बिके खातिर ना रखल जाएला.
लिबर्टी स्पोर्ट्स (1957) के अनिल छाबड़िया हमरा अशोक भाई के बिजनेस कार्ड पकड़ा देलें, आउर कहलें, “केहू हमनी लगे पोलो मैलेट पूछत आवेला, त हमनी हरमेसा पोलो विक्ट्री के सोझे जयपुर पोलो हाउस भेज दिहिला.”
पोलो विक्ट्री सिनेमा (अब होटल) के अशोक भाई के ताऊ केशू राम बनवइले रहस. ई सिनेमा 1933 में इंगलैंड के खेले गइल जयपुर टीम के ऐतिहासिक जीत के इयाद में बनावल गइल रहे. केशू राम पोलो मैलेट बनावे वाला अकेला कारीगर रहस. ऊ टीम संगे ओह घरिया दौरा पर गइल रहस.
आज के तारीख में, जयपुर आ दिल्ली में होखे वाला सलाना पोलो मुकाबला जयपुर के ऐतिहासिक टीम के तीन सदस्य के नाम पर आयोजित कइल जाला. ई तीन लोग बा, मान सिंह द्वितीय, हनूट सिंह आउर पृथी सिंह. अइसे त, भारत के पोलो के इतिहास में अशोक भाई आउर उनकर परिवार के कवनो खास पहचान ना मिलल.
ऊ कहलें, “जबले खेल बेंत के छड़ी से खेलल जाई, खिलाड़ी लोग के हमरा लगे आवही के पड़ी (जब तक केन की स्टिक से खेलेंगे, तब तक प्लेयर्स को मेरे पास आना ही पड़ेगा).”
एह स्टोरी के मृणालिनी मुखर्जी फाउंडेशन (एमएमएफ) से मिले वाला फेलोशिप से सहयोग मिलल बा.
अनुवाद: स्वर्ण कांता